Thursday, May 2, 2024
पातंजलयोगसूत्र (राजयोग)

योग क्या है ? अर्थ एवं परिभाषा – What is Yoga ? Meaning and Definition

योग क्या है ? अर्थ एवं परिभाषा – What is Yoga ? Meaning and Definition

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हम जानें  योग क्या है? what is yoga ? इसके अर्थ एवं परिभाषा  को | 

भारतवर्ष की एक प्राचीनतम साधना पद्धति एवं सर्वसम्मत अविसम्वादि सार्वभौम सिद्धान्त है। यह भारतीय जीवन पद्धति का महत्वपूर्ण अंग है। इसे गुह्यविद्या या रहस्य विद्या भी कहा जाता है। इसका आधार कठोर पुरुषार्थ और साधना है। इस विद्या के आधार पर ऋषि-मुनियों ने प्रकृति के सूक्ष्म तत्त्वों का रहस्यात्मक ज्ञान प्राप्त किया था।

योग-विद्या केवल प्राकृतिक शक्तियों की वैज्ञानिक समीक्षा तक ह सीमित न थी, अपितु योग का उद्देश्य आत्मा, परमात्मा एवं ब्रह्म का स्वरूप ज्ञान करके मोक्ष प्राप्त करना, जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त होना, आत्म साक्षात्कार करना था।

योग-साधना के द्वारा मनुष्य आत्मा में निहित अनन्त शक्तियों,ऋद्धि-सिद्धियों तथा विभूतियों को प्राप्त कर सकता है, जिससे वह अपना ही नहीं अपितु विश्व का, समाज और राष्ट्र का अत्यधिक कल्याण कर सकता है। योग-विद्या शारीरिक और आत्मिक उन्नति का सर्वोत्तम साधन है। इसके विधि-विधान का विवेचन योगशास्त्र है।

योग प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा अन्वेषित प्राच्य विद्या है। जो हमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक उन्नति के साथ हमें आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। योग वह शास्त्र है जिस पर चलकर शरीर, मन एवं आत्मा के सम्पूर्ण स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है।

1. योग की व्युत्पत्ति एवम् अर्थ  –

योग शब्द पाणिनी संस्कृत व्याकरण के अनुसार गणपाठ में तीन ‘युज् धातु’ है। तीनों ही धातुओं से योग शब्द निष्पन्न होता है, किन्तु तीनों के अर्थ में भिन्नता हैं। इसमें से जो गणों की भिन्नता से जो योग शब्द बनता वह निम्न है –

1. दिवादिगणीय – ‘युज् समाधौ’ , समाधि।


2. रुधादिगणीय – ‘युजिर् योगे’, संयोग-मेल या एकत्व होना।


3. चुरादिगणीय – ‘युज्-संयमने’, संयमन या नियमन करना।

प्रथम ‘युज् समाधौ’ में जो ‘समाधि’ अर्थ प्रयुक्त किया गया है इसका अर्थ जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चित्त की वृत्तियों का निरोध या रोकना है।
द्वितीय ‘युजिर् योगे’ का अर्थ मिलना या मिलाना। दो वस्तुओं या दो तत्वों को मिलाना या उनका मिलन योग है। जीवात्मा को परमात्मा से मिलाना (औपाधिक रूप में उदाहरण- घटाकाश व महाकाश)या दोनोें का मिलन योग है।

तृतीय ‘युज् संयमने’ का अर्थ संयत करना, रोकना और उसका निग्रह करना। मन और इन्द्रियों को संयत करना, उन पर नियन्त्रण करना और उनको पथभ्रष्ट होने से बचाना।

संस्कृत व्याकरण के आधार पर ‘योग‘ शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है:
1. ‘युज्यते एतद् इति योगः’ – इस व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मकारक में योग शब्द का अर्थ चित्त की वह अवस्था है, जब चित्त की समस्त वृत्तियों में एकाग्रता आ जाती है। यहाँ पर योग शब्द उद्देश्यार्थ प्रयोग हुआ है।
2. ‘युज्यते अनेन इति योगः’ – इस व्युत्पत्ति के अनुसार करण कारक में योग शब्द का अर्थ वह साधन है जिससे समस्त चित्तवृत्तियों में एकाग्रता लायी जाती है। यहाँ योग शब्द साधनार्थ प्रयुक्त हुआ है। इस आधार पर योग के विभिन्न साधनों को जैसे हठ, मन्त्र, ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि को हठयोग, मंत्रयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि के नाम से पुकारा जाता है।
3. ‘युज्यते तस्मिन् इति योगः’– इस व्युत्पति के अनुसार योग शब्द का अर्थ वह स्थान है जहाँ चित्त की वृत्तियों की एकाग्रता उत्पन्न की जाती है।

2. योग की परिभाषाएँ Definition of Yoga


योग के अधिष्ठाता ऋषि-मुनियों, विद्वानों एवं तत्वदर्शियों ने चेतना के विभिन्न आयामों में पहुँचकर जो देखा व अनुभव किया उसे उन्होंने सूत्र रूप में परिभाषित कर हमारे समक्ष प्रस्तुत वह निम्नवत् है-

पातंजल योगसूत्रानुसार –


योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (योगसूत्र 1/2)

अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध योग कहलाता है।
यहाँ पर हमें चित्त क्या है? उसकी वृत्तियाँ क्या है? तथा उनका निरोध किस प्रकार किया जा सकता है। यह जानना आवश्यक है। चित्त हमारे अन्तःकरण चतुष्ट्य (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) का एक महत्वपूर्ण भाग है। ‘चित्त’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘चिति संज्ञाने’ धातु से हुई। जिसका अर्थ ‘——–’ संज्ञान में होना या इक्कठा होना।

अन्य शब्दों में चित्त का अर्थ ‘कर्माशय’ है अर्थात् वह स्थान जहाँ पर हमारे सभी प्रकार के नये-पुराने कर्म संस्कार इक्कट्ठे होते हैं। चित्त को एक जलाशय या पोखर के रूप में उद्धरित किया जा सकता है। ‘वृत्ति’ शब्द ‘वृतुर्वतने’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है – वृत्ताकार घुमना, गोल-गोल घुमना, ऊपर-नीचे होना, तरंगित होना। और ‘निरोध’ का अर्थ है पूर्णतः रोकना नहीं बल्कि समाप्त कर देना है।

यद्यपि चित्त त्रिगुणात्मक है, तथापि प्रकृति का जो ज्ञानरूप सात्त्विक परिणाम है, वह सत्त्व विशिष्ट ही है और वही सत्त्वविशिष्ट परिणाम चित्त नाम से जाना जाता है। चित्त की पाँच वृत्तियाँ हैं: प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। यद्यपि चित्त की वृत्तियाँ असंख्य है फिर भी उक्त पाँच रूपों में ही उनका संकलन किया जाता है। जिस अवस्था विशेष में उक्त वृत्तियाँ रुक जाती हैं, उस अवस्था विशेष को ‘योग’ कहा जाता है।


श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार:


भगवान् कृष्ण ने गीता में विभिन्न संदर्भों में प्रसंगवश योग विषयक अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं जो कि निम्न हैं –
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
2/48
अर्थात् – हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, क्योंकि समत्व ही योग कहलाता है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।
। 2/50
अर्थात् – समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा, यह समत्व रूपयोग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंिज्ञतम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगो{निर्विण्णचेेतसा।।
6/23
अर्थात् – जो दुःख रूप संसार के संयोेग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिये। वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।

योगवासिष्ठ के अनुसार –


संसारोत्तरेणे युक्तिर्योग शब्देन कथ्यते । (निर्वाण प्रकरण पूर्वार्ध 6/13/3)
अर्थात् – संसार सागर से पार होने की युक्ति ही योग है।


मैत्रयणी उपनिषद् के अनुसार :


एकत्वं प्राण मनसोः इन्द्रियाणाम् तथैव च ।
सर्वभावपरित्यागो योग इत्यभिधाीयते।
6/25
अर्थात् – ‘‘जिसमें मन विचारों से रहित होकर इन्द्रियों, मन और प्राणों की एकता हो जाती है , वह योग है।
माण्डूक्यकारिका के अनुसार:
सर्वाभिलापविगतः सर्वचन्तासमुत्थिः।
सुप्रशान्तः सकृज्जयोतिः समाधिारचलोऽभयः।।

अर्थात् समाधि चैतन्य की वह अवस्था है, जब चित्त समस्त वाच्यवाचक रूप व्यापार से होता है, समस्त चिन्तायें जब निरूद्ध रहती हैं, जब चित्त सुप्रशान्त, प्रकाशमय, अचल और होता है।


कठोपनिषद् के अनुसार


यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह
बुद्धिश्च न विचेष्टति तमाहुः परमां गतिम्।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियः धारणम् ।
अग्रमत्तस्तदा भवति योगो ही प्रभवाप्ययौ।
। (2/3/10-11)
अर्थात् जब पाँचों इन्द्रियाँ मन के साथ स्थिर हो जाती है और बुद्धि निश्चेष्ट अर्थात् स्थिर हो जाती है तब इसे सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ मानते हैं। इन्द्रियों की स्थिर धारणा योग की अवस्था है। इस स्थिति को प्राप्त हुआ योगी प्रमाद रहित हो जाता है, मन के इस दृढ़ निग्रह को ही योग के संज्ञा दी जाती है।
याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार: –
संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः ।। 1/44
अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के समनरूपत्वरूप संयोग का नाम योग है।


लिंगपुराण के अनुसार :


लिंगपुराण पुराण में महर्षि व्यास ने योग का लक्षण बताया हैः
सर्वार्थविषयप्राप्तिरात्मनौ योग उच्यते।
अर्थात् आत्मा को समस्त विषयों की प्राप्ति होना योग कहा जाता है। उक्त परिभाषा में भी पुराणकार का अभिप्राय योगसिद्धि का फल बताना ही है। समस्त विषय को प्राप्त करने का सामर्थ्य योग की एक विभूति है।


अग्निपुराण के अनुसार :


आत्ममानसप्रत्यक्षा विशिष्टा या मनोगतिः।
तस्या ब्रह्यणि संयोगों योग इत्यभिधाीयते।।
379/25
अर्थात् योग मन की एक विशिष्ट अवस्था है। जब मन में आत्मा को और स्वयम् मन के प्रत्यक्ष करने की योग्यता आ जाती है, तब उसका ब्रह्म के साथ संयोग हो जाता है। संयोग का अर्थ है कि ब्रह्म की समरूपता उसमें आ जाती है। यह समरूपता की स्थिति ही योग है।


स्कन्दपुराण के अनुसार:


यत्समत्वं द्वयोरत्र जीवात्मपरमात्मनोः।
स नष्टसर्वसंकल्पः समाधिरभिधीयते।।
परमात्मात्मनोर्योऽयमविभागः परन्तप।
स एव तु परो योगः समासात्कथितस्तव।।

यहाँ प्रथम श्लोक में जीवात्मा और परमात्मा की समता को समाधि कहा गया है तथा दूसरे श्लोक में परमात्मा और आत्मा की अभिन्नता को परम योग कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि समाधि ही योग है। वृत्तिनिरोध की अवस्था में ही जीवात्मा और परमात्मा की यह समता और दोनों का अविभाग हो सकता है। यह बात ‘नष्टसर्वसंकल्पः‘ पद के द्वारा कही गयी है।


हठयोगप्रदीपिका के अनुसार:


सलिले सैन्धवं यद्वत् साम्यं भजति योगतः।
तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधाीयते।।
4/5
अर्थात् जिस प्रकार नमक जल में मिलकर जल की समानता को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार जब मन वृत्तिशून्य होकर आत्मा के साथ ऐक्य को प्राप्त कर लेता है तो मन की उस अवस्था का नाम समाधि है।
योगशिखोपनिषद् के अनुसार:
यो{पानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोस्तया।
सूÕर्यचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनोः।।
(1/68)
एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।
अथ योगशिखां वक्ष्ये सर्वज्ञानेषु चोत्त्माम्।
। (1/69)
योगशिखोपनिषद् में कहा गया है कि अपान और प्राण की एकता कर लेना, स्वरज रूपी महाशक्ति कुण्डलिनी को स्वरेत रूपी आत्मतत्व के साथ संयुक्त करना, सूर्य अर्थात् पिंगला और चन्द्र अर्थात इड़ा स्वर का संयोग करना तथा परमात्मा से जीवात्मा का मिलन योग है।


महोपनिषद् के अनुसार:


‘‘मनः प्रश्मनोपायो योग इत्यभिधीयते।’’ (5/42)
अर्थात् – मन के प्रश्मन का उपाय ही योग है।


कैवल्योपनिषद् के अनुसार:


‘‘श्रद्धा भक्ति एवं ध्यान के द्वारा आत्मा को जानना ही योग है।’’ (1/2)


निर्वाणोपनिषद् के अनुसार:


‘‘योगेन सदानन्दस्वरूपं दर्शनम्।’’


सांख्ययोग के अनुसार:


‘‘पुं प्रकृत्योतियोगो{पियोगइत्याभिधीयते’’।
(सांख्यदर्शन-महर्षि कपिल)
अर्थात् प्रकृति और पुरुष का वियोग करके पुरुष के स्वरूप में स्थित हो जाना योग है।
भोजवृत्ति के अनुसार:
‘‘पुं प्रकृत्यो वियोगो{पि योग इत्युदितो यया’’ (भोजवृत्ति)
अर्थात् पुरुष और प्रकृति के वियोग को योग कहा जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार:
‘‘कायवांड्मनकर्मयोगः’’
अर्थात् – शरीर, वाणी और मन की क्रियाओं को योग कहा गया है।


वैशेषिक दर्शन के अनुसार:


‘तदनारम्भ आत्मस्ये मनसि शरीरस्य दःखाभाव संयोगः।’
अर्थात् शरीर, मन एवं आत्मा के स्थित होने पर उसके दुःख का अभाव होता है वही योग है।
शिवसंहिता के अनुसार: ‘‘शिव और शक्ति का मिलन ही योग है।’’


महाभारत वन पर्व के अनुसार:


‘‘तंविद्याद् ब्रह्मणो योगं वियोगं योग संज्ञितम्।’
र्थात् – संसार के दुःखों से वियोग के साथ ब्रह्म के साथ संयोग होना योग है।
वेदान्त के अनुसार:
‘‘जीव और आत्मा की संज्ञा ही योग है।’’

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